इन धमाकों में हमीं क्यों गीत गाना छोड़ दें
रात होती है तो जुगनू बेचमक रहता नहीं
तोड़ ही देती है किरणें शीत का भारी कवच
कोहरा कितना घना हो, देर तक रहता नहीं
धन खर्च करके लोग, सभी कुछ खरीद लाए
चाहत न मिल सकी है तो पैसे से क्या मिला?
भरते जो पानियों से मरुस्थल तो बात थी
बादल को सागरों पे बरसने से क्या मिला?
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
Tuesday, November 18, 2008
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5 comments:
वाह वाह क्या बात है !
waah sundar
दोनों मुक्तक लाजवाब है...भाव और शब्द दोनों कमाल के...वाह...
नीरज
तीनों मित्रों को धन्यवाद्।
गिरिराजशरण अग्रवाल
आदरणीय सर ,आपकी प्रेरणा से भरपूर कलम को सादर प्रणाम !
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