Tuesday, December 2, 2008

मुक्तक 23

कुआँ ही खोद न पाओ तो फिर गिला कैसा?
ग़लत कहा कि 'ज़मीनों में जल नहीं मिलता'
इक इंतज़ार का अर्सा भी दरमियान में है
किसी को पेड़ लगाते ही फल नहीं मिलता

समय है लू का तो पुरवाइयों का मौसम भी
पवन झुलस गई शाखें निखार आती है
बताओ डालियाँ पतझर से हारती कब हैं?
बहार आती है और बार-बार आती है

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Friday, November 28, 2008

मुक्तक 22

प्रेम की शंखला बना डालो
हाथ से हाथ जोड़ना सीखो
तुम जो आँधी के साथ बहते हो
रुख हवाओं का मोड़ना सीखो

नदी नाले, सागर से बचते नहीं
यह दरिया, समंदर-समंदर गया
जो दुनिया से पाया, वह दुनिया को दो
कोई साथ लाया, न लेकर गया

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Thursday, November 20, 2008

मुक्तक 21

भीतर की रोशनी नहीं बाहर के दीप से
आँखों में भी चिराग़ जलाए तो बात है
पत्ता हवा में काँपा है, चट्टान तो नहीं
दुख में मन का चैन न जाए तो बात है

बंजर पड़ी हुई हैं ज़मीनें इधर-उधर
फ़सलें अभी बहुत हैं उगाने के लिए भी
बस अपने दायरे में ही तो सीमित नहीं रहो
अपने लिए भी तुम हो, ज़माने के लिए भी

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Tuesday, November 18, 2008

मुक्तक 20

इन धमाकों में हमीं क्यों गीत गाना छोड़ दें
रात होती है तो जुगनू बेचमक रहता नहीं
तोड़ ही देती है किरणें शीत का भारी कवच
कोहरा कितना घना हो, देर तक रहता नहीं

धन खर्च करके लोग, सभी कुछ खरीद लाए
चाहत न मिल सकी है तो पैसे से क्या मिला?
भरते जो पानियों से मरुस्थल तो बात थी
बादल को सागरों पे बरसने से क्या मिला?

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Sunday, November 16, 2008

मुक्तक 19

यह आग है, इसके लिए क्या महल, कुटी क्या?
छप्पर में लगेगी तो हवेली न बचेगी
दीवार के हर जोड़ की रक्षा है ज़रूरी
इक ईंट जो खिसकेगी तो दूजी न बचेगी

हाथ ख़ाली हो तो मत शोहरत के पीछे भागिए
कारनामा कीजिए, फिर नाम पैदा कीजिए
मन की बेकारी जो है, अज्ञानता की देन है
पूछिए मत काम क्या है? काम पैदा कीजिए

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Saturday, November 15, 2008

मुक्तक 18

इक हम हैं कि नींदों से जगाती है हमें धूप
सूरज का मगर सुबह के तारे को पता है
हम अपने लिए लक्ष्य तलाशा करें लेकिन
किस पेड़ पे फल है, यह परिंदे को पता है

सहयात्रियों को देख,हवाओं को भी परख
तूफ़ान सामने हो तो किश्ती की जाँच कर
सब कुछ परख चुके तो कभी सबके पारखी
कठिनाइयों के सामने अपनी भी जाँच कर

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल

Friday, November 14, 2008

मुक्तक 17

वह युग जो जा चुका है, उसे मत भुलाइए
अच्छाइयाँ बहुत थीं, पुराने के साथ भी
दुनिया से अपनी दूरियाँ, पहले मिटाइए
हम अपने साथ भी हैं, ज़माने के साथ भी

भूल किसकी थी कि जानें आँकड़ों में ढल गई
आदमी अब आदमी कब रह गया, गिनती बना
शक्ति थी बाहों में जब तक हाथ फैलाए नहीं
कर्म ने जब हार मानी, क्या बना? विनती बना

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Thursday, November 13, 2008

मुक्तक 16

विश्व के निर्माण को निर्माणकारी चाहिए
कौन मूरख सीख यह देता है, दुनिया कुछ नहीं
शिल्पियों ने छू दिया तो देवता बन जाएगा
तेरे-मेरे हाथ में पत्थर का टुकड़ा कुछ नहीं

यों तो ऐ दुनिया सभी कुछ है तेरे बाज़ार में
दुख भी है, आराम भी है, मान भी अपमान भी
देखना यह है कि किसने किस तरह से तय किया
ज़िंदगी का रास्ता मुश्किल भी है आसान भी

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Wednesday, November 12, 2008

मुक्तक 15

आस्माँ मैला हुआ, पानी हवा दूषित हुए
मिटि्टयों में ज़हर ऐसा क्या कभी पहले भी था
रिश्ते नाते वह नहीं हैं जिनको सुनते आए हैं
आदमी जो आज है वह आदमी पहले भी था

रात कटनी चाहिए, सूरज निकलना चाहिए
रोशनी आ जाएगी घर में दरीचा हो न हो
तुम निरालेपन की धुन में क्यों लगे हो दोस्तो!
काम हो अच्छे से अच्छा, वह अनोखा हो न हो

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Tuesday, November 11, 2008

मुक्तक 14

अगर चिराग़ जलाने का होश बाकी है
अमावसों के अँधेरे से कुछ नहीं होता
अमल नहीं है तो कुछ भी नहीं है दुनिया में
विचार और इरादे से कुछ नहीं होता

माने कोई जो सच तो उसे आइना दिखा
भटका हो गर पथिक तो उसे रास्ता दिखा
बिखरे हुए हैं चारों दिशा में हज़ार भ्रम
आँखों को देखना नहीं, पहचानना सिखा

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Monday, November 10, 2008

मुक्तक 13

कब हवा-जल के बिना फूल खिला करते हैं
कब बुझे दीप पे परवाने जला करते हैं
कोई दुनिया में किसी का नहीं बनता यों ही
लोग अपने तो बनाने से बना करते हैं

शोर बढ़ता जा रहा है शहर के माहौल में
मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन
आस्माँ में जोत की रेखा बना, पर जल बुझा
दीप-माला बन के जी, टूटा हुआ तारा न बन

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Sunday, November 9, 2008

मुक्तक 12

मिट न पाई आदमी से आदमी की दूरियाँ
सब घरों में एक जैसी जिंदगी पहुँची नहीं
बल्ब घर का ऑन करके देखिए, फिर सोचिए
कौन से कोने हैं, जिनमें रोशनी पहँची नहीं

मेघ पहले भी तेरे वश में न थे, अब भी नहीं
यदि कुआँ खोदा नहीं, पानी की आशा किसलिए
द्वार मन का बंद हो तो प्यार की खुशबू कहाँ
सीप को खोले बिना, मोती की आशा किसलिए

घर बंद अगर है तो सुगंधित नहीं होगा
खुशबुएँ हवा में कभी रुकने नहीं पातीं
फल चाहिए तो फिर हाथ बढ़ाना है ज़रूरी
शाखाएँ तो माली कभी झुकने नहीं आतीं

आप देखें किसको पाने की लगन है आपमें
ओस का कतरा भी है, बहता हुआ दरिया भी है
देखना यह है कि क्या बोया है, हमने आपने
कोख में धरती की मीठा फल भी है कड़ुआ भी है

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Saturday, November 8, 2008

मुक्तक 11

जल से जूझे नहीं जो खेवनहार
तट पे जलयान जा नहीं सकता
हाथ जब तक नहीं बढ़ाओगे
जाम खुद चल के आ नहीं सकता

क्या सफर तय करेंगे जीवन का
वे जो गिर कर सँभल नहीं जाते
आग दुख की हमें न बदलेगी
जल के रस्सी के बल नहीं जाते

जो फसल काटने के इच्छुक हैं
याद रखते हैं खेत बोना भी
खोजने के हुनर पे है निर्भर-!
शूल मिट्टी में है तो सोना भी

हर तरफ़ महनतों की रौनक है
हम समझते हैं, टाल देते हैं
चलते-चलते ज़मीं की छाती पर
पाँव रेखाएँ डाल देते हैं

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Thursday, November 6, 2008

मुक्तक 10

आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है
ज़िंदगी हर घाव अपना सी न ले तो बात है
एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात
सुब्ह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है

पेड़ हैं लचकेंगे, फिर सीधे खड़े हो जाएँगे
नाचते गाते रहेंगे, आँधियों के दरमियाँ
आपदाओं से कहाँ धूमिल हुई जीवन की जोत
फूल खिलते आ रहे हैं कंटकों के दरमियाँ

शब्द भी मेरे नहीं हैं, गीत भी मेरे नहीं
मैंने जो कागज पे लिक्खा वह सभी का हो तो हो
सर के ऊपर चाँद-सूरज, साँस में ढलती हवा
अंत जीवन का नहीं है, आदमी का हो तो हो

आचरण में मोम की नर्मी भी हो, फौलाद भी
फूल बनकर म्यान में तलवार रहना चाहिए
कब समय की माँग क्या हो, यह पता चलता नहीं
आदमी को हर घड़ी तैयार रहना चाहिए

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Wednesday, November 5, 2008

मुक्तक 9

एक ही पूँजी है ऐसी जो गई तो सब गया
जो भी है खो दीजिए, मानवता मत खोइए
रूप में पत्थर के ढलता जा रहा है आदमी
धन को पाने के लिए संवेदना मत खोइए

नाम चाहा न कभी भूल के शोहरत माँगी
हमने हर हाल में खुश रहने की आदत माँगी
हो न हिम्मत तो है बेकार यह दौलत ताक़त
हमने भगवान से माँगी है तो हिम्मत माँगी

जिन्हें तय करके आए हो, उन्हीं सड़कों पे मत लौटो
नई राहें निराले रास्ते सोचो तो अच्छा है
पुराने मौसमों की याद में खोए हुए क्यों हो?
जो मौसम आने वाला है, उसे सोचो तो अच्छा है

इस तरह बढ़-चढ़ के क्यों चर्चा अमावस की करें
रात काली ही सही, पर रोशनी थोड़ी नहीं
ज़िंदगी को चार दिन की मानने वालो सुनो
गर न भटकन में कटे तो ज़िंदगी थोड़ी नहीं


गिरिराजशरण अग्रवाल

Tuesday, November 4, 2008

मुक्तक 8

यदि कभी अवसर मिले, दोनों का अंतर सोचना
दर्द सहना वीरता है, जुल्म सहना पाप है
स्वप्न में भी सावधानी शर्त है, जीना जो हो
जागती आँखें लिए निंद्रा में रहना पाप है

सुख अगर बाँटें हैं तुमने आओ दुख भी बाँट लो
मेरे मन की पीड़ बस मेरी हो, सबकी क्यों न हो
अपनी अपनी नाक तक ही देखने का लाभ क्या?
आँख में हो जोत तो फिर दूरदर्शी क्यों न हो

बिजलियाँ कैसे बनी हैं बादलों से पूछिए
है समंदर का पता क्या बारिशों से पूछिए
छेद कितने कर दिए हैं रात के आकार में
दीपकों की नन्ही-नन्ही उँगलियों से पूछिए

कोई मसला सोचते रहने से हल होता नहीं
सामने का सच है जीवन, यह कोई सपना नहीं
अस्त्र से भी बढ़ के अपने पर भरोसा चाहिए
मौज से लड़ता है माँझी का हुनर, नौका नहीं

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Monday, November 3, 2008

मुक्तक 7

शांत मुस्कानें अधर पर फैलती खिलती रहें
घर में बस धन ही नहीं हो, प्यार का सागर भी हो
मन के भीतर भी अँधेरे रास्त है हर तरफ़!
रोशनी बाहर नहीं इंसान के भीतर भी हो


नन्हा पौधा रोपकर साये की आशा किसलिए
फल जो दे, छाया भी दे, वह पेड़ बोना चाहिए
सुब्ह कल की शुभ न होगी, पहले यह शंका हटे
मन से कल का भय जो है, वह दूर होना चाहिए

मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो
यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर आ जाएगा
सिर्फ साहस ही नहीं, धीरज भी तो दरकार है
सीढि़याँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा

हर दिशा से तीर बरसे, घाव भी लगते रहे
जिंदगी भर दिल मेरा आघात से लड़ता रहा
दोस्त! कस बल की नहीं, यह हौसले की बात है
कितना छोटा था दिया, पर रात से लड़ता रहा

Sunday, November 2, 2008

मुक्तक 7

ढूँढ़ना कोई अगर चाहे दिशाएँ कम नहीं
खिड़कियों को खोलकर रक्खो, हवाएँ कम नहीं
एक ज्ञानी, क्या पते की बात मुझसे कह गया
भावना गर मन में हों, सँभावनाएँ कम नहीं

ओस आँसू की तरह कब तक गिरेगी देखना
फूल बनकर हर कली हँसने लगेगी देखना
सब के दिल में तो छुपी बैठी नहीं है कालिमा
रोशनी पत्थर के दिल में भी मिलेगी देखना

बंजरों में जल मिलेगा, प्यास तो बाकी रहे
दिल के अंदर दर्द का एहसास तो बाकी रहे
किसलिए बे-आस होकर राह तकना छोड़ दूँ
कोई आए या न आए, आस तो बाकी रहे

नफ़रत को नहीं, प्यार को ताक़त समझो
दुख पाओ जो रस्ते मंे तो राहत समझो
इक बार के गिरने से हताशा क्यों हो
ठोकर को सफलता की ज़मानत समझो

जिनको पानी है सफलता, जिनको करना है सफर
ठोकरें खाते हैं पर हटते नहीं हैं राह से
अंकुरित होता है पौधा दोस्त धरती चीरकर
कितना कोमल है, मगर भरपूर है उत्साह से

Saturday, November 1, 2008

मुक्तक 5

बाधाओं से लड़ती है बराबर दुनिया
संघर्ष से छू लेती है अंबर दुनिया
तुम भूल के यह शाख न कटने देना
इस शाख पे आशा की है निर्भर दुनिया

सावन को पुकारूँ तो घटनाएँ फैलें
लूँ साँस तो हर ओर हवाएँ फैलें
संसार मेरे वक्ष में सिमटे सारा
उत्साह में गर मेरी भुजाएँ फैलें

रोकेगा कहाँ पाँव यह पत्थर मेरा
चलता है तो रुकता नहीं लश्कर मेरा
मैं ओस की इक बूँद नहीं हूँ लोगो!
हर बूँद के अंदर है समंदर मेरा

इंसान हूँ अमृत का प्याला मैं हूँ
धुन कोई भी हो, गूँजने वाला मैं हूँ
सूरज जो छुपा, बढ़ के अँधेरा लपका
दीपक ने कहा देख उजाला मैं हूँ

Friday, October 31, 2008

मुक्तक 4

साँसों में मेरी सर्द हवा बनकर आ
रोगी हूँ जनम का मैं, दवा बनकर
आ ये प्यास मेरे भाग्य में लिक्खी क्यों है
मरुथल में मैं प्यासा हूँ, घटा बनकर आ

खोजे न कभी चाँद-सितारे हमने
ढूँढे ही नहीं प्यार के धारे हमने
अब आग की फ़सलें जो उगीं तो ग़म क्या
खुद बोए थे खेतों में शरारे हमने

संसार में अपना न पराया कोई
संगत में रहा बन के न साया कोई
जीवन का सफ़र? साथ चले थे कितने
सोचा तो बहुत याद न आया कोई

काँटों की फ़सल बोए हुए हैं हम लोग
बीहड़ में कहीं खोए हुए हैं हम लोग
सब देखते रहते हैं खुली आँखों से
जागे हैं मगर सोए हुए हैं हम लोग

Thursday, October 30, 2008

मुक्तक 3

बहलावे भला साथ कहाँ तक देंगे
साधन ये सदा साथ कहाँ तक देंगे
चेहरे से मुखर होती है मन की भाषा
ये शब्द बता साथ कहाँ तक देंगे

इतिहास मेरा गिरना, सँभलना, चलना
हर मोड़ पे इक राह बदलना, चलना
ठहरा तो मैं रह जाऊँगा, पत्थर बनकर
चलना मेरा उद्देश्य है, चलना, चलना

हर रंग, हर अंदाज़ में ढलना सीखो
अनचाहे भी हर राह पे चलना सीखो
संसार में जीना नहीं आता तुमको
हर साँस में सौ रूप बदलना सीखो

अहसास किसी प्यास का रह जाता है
मंजि़ल पे भी इक रास्ता रह जाता है
तन-मन में समा जाने की खातिर
हम तुम मिलते हैं मगर फ़ासला रह जाता है

मुक्तक 2

काँटों पे गुलाबों की छड़ी रख देना
दुख-दर्द की झोली में खुशी रख देना
संसार को आँसू नहीं भाते प्यारे
रोना हो तो होठों पे हँसी रख देना

तुमने भी तो इस दर्द को भोगा होगा
संपर्क अगर मित्र से टूटा होगा
बेजान जो हो फ़ोन तो बढ़ जाता है
ये दुख कि उधर वो भी अकेला होगा

है कौन से सागर की पिपासा हम में
बुझती नहीं इच्छाओं की ज्वाला हम में
जीवन के लिए पाई है जितनी सुविधा
उतना ही असंतोष बढ़ा है हम में

किस रूप पे तू रीझ रहा है पगले
ये दीप बस इक रात जला है पगले
आ देख, तनिक झाँक के भीतर अपने
हर प्यार में इक स्वार्थ छिपा है पगले

Tuesday, October 28, 2008

मुक्तक 1

इक स्वप्न है तुम मुझको मनाने आओ
मन बुझने लगा हो तो हँसाने आओ
कब सुब्ह हो, कब फूल-सा महकूँ मैं भी
कब मेज़ पे तुम फूल सजाने आओ

बेकार ये कहते हो कि चादर कम है
छाया जिसे कहते हैं वो सर पर कम है
साहस हो तो पर्वत पे पहुँचना आसां
तैराक की बाहों को तो सागर कम है

सहयोग से खिलती हुई कलियाँ चुन लो
फूलों के महकते हुए गजरे बुन लो
सद्भाव के मुख पर नहीं होती ललकार
खामोश यह आवाज़ है, सुन लो, सुन लो

डा. गिरिराज शरण अग्रवाल

Tuesday, October 7, 2008

दोस्ती

रोशनी बनकर पिघलता है उजाले के लिए
शम्अ जल जाती है घर को जगमगाने के लिए

हमने अपनों के लिए भी मूँद रक्खा है मकाँ
पेड़ की बाहें खुली हैं हर परिंदे के लिए

प्रेम हो, अपनत्व हो, सहयोग हो, सेवा भी हो
सिर्फ़ पैसा ही नहीं, हर बार जीने के लिए

जितने भी काँटे हैं पग-पग में वे चुनते जाइए
रास्ते को साफ़ रखना आने वाले के लिए

एक दिन जाना ही है, जाने से पहले दोस्तो
यादगारें छोड़ते जाओ, ज़माने के लिए

समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है. हम सपने बुनते हैं और वे एक एक कर बिखर जाते हैं.ऐसे समय में अपनों को जोड़े रखना और उनके दर्द को पहचानना बहुत ज़रूरी है. क्या हम कुछ करेंगे?

डा. गिरिराज शरण अग्रवाल

Friday, October 3, 2008

सभी को रौशनी दे


इसे रौशनी दे उसे रौशनी दे

सभी को उजालों भरी जिंदगी दे।

सिसकते हुए होठ पथरा गए हैं,

इन्हें कहकहे दे, इन्हें रागिनी दे।

मेरे रहते न प्यासा न रह जाए कोई,

मुझे दिल दिया है तो दरियादिली दे।

मझे मेरे मालिक नहीं चाहिए कुछ,

ज़मीं को मुहब्बत भरा आदमी दे।

आज आदमी को चाहिए प्रेम, अपनापन। आतंकवाद ने आदमी को भयभीत कर दिया है। घर से निकलता है तो उसे घर पहुँचने men भी aashnka होती है। कब क्या हो जाए उसे पता ही नहीं है। क्या इन darindon से समाज मुक्त हो सकता है? prayas कीजिये।

giriraj sharan agrawal

Thursday, October 2, 2008

घुटन

सिमटा तो आज अपने ही कमरे की छत बना।
कल तक तो आसमान सा फैला हुआ था मैं।
देखिये आज के बुजुर्गों की ओर। अपने ही परिवार में कितना अकेलापन महसूस करते हैं। क्यों है ऐसा। कभी उनके मन में झांक कर देखिये। आप पायेंगे वे आपकी ओर निहार रहे हैं। क्या कभी हम बूढे नहीं होंगे? आइये अपने घर को मकान ही मत रहने दीजिये।
गिरिराज शरण अग्रवाल