Saturday, November 8, 2008

मुक्तक 11

जल से जूझे नहीं जो खेवनहार
तट पे जलयान जा नहीं सकता
हाथ जब तक नहीं बढ़ाओगे
जाम खुद चल के आ नहीं सकता

क्या सफर तय करेंगे जीवन का
वे जो गिर कर सँभल नहीं जाते
आग दुख की हमें न बदलेगी
जल के रस्सी के बल नहीं जाते

जो फसल काटने के इच्छुक हैं
याद रखते हैं खेत बोना भी
खोजने के हुनर पे है निर्भर-!
शूल मिट्टी में है तो सोना भी

हर तरफ़ महनतों की रौनक है
हम समझते हैं, टाल देते हैं
चलते-चलते ज़मीं की छाती पर
पाँव रेखाएँ डाल देते हैं

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

3 comments:

Vivek Gupta said...

"चलते-चलते ज़मीं की छाती पर
पाँव रेखाएँ डाल देते हैं"

सुंदर

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर!!

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाहवा बहुत खूब मान्यवर डबल बधाई
ye word verification hataiye