Monday, November 10, 2008

मुक्तक 13

कब हवा-जल के बिना फूल खिला करते हैं
कब बुझे दीप पे परवाने जला करते हैं
कोई दुनिया में किसी का नहीं बनता यों ही
लोग अपने तो बनाने से बना करते हैं

शोर बढ़ता जा रहा है शहर के माहौल में
मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन
आस्माँ में जोत की रेखा बना, पर जल बुझा
दीप-माला बन के जी, टूटा हुआ तारा न बन

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

6 comments:

manvinder bhimber said...

शोर बढ़ता जा रहा है शहर के माहौल में
मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन
आस्माँ में जोत की रेखा बना, पर जल बुझा
दीप-माला बन के जी, टूटा हुआ तारा न बन

kitne sunder shabdon ka pryoog hai....sunder

Prakash Badal said...

बाह डाँ साहब आपके मुकतकों की क्या बात है। बधाई अच्छा लिखने और उसे बांटने के लिये

36solutions said...

मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन

बहुत सुन्‍दर ।

ghughutibasuti said...

बहुत सुंदर !
घुघूती बासूती

तसलीम अहमद said...

vah! kya baat hai!
aap mil hi gaye!!!!
aapse sanvaad ki koshish me kafi dino se tha, aaj apka blog dekh kar dil khush ho gaya.

Udan Tashtari said...

बढ़िया मुक्तक.