Wednesday, November 5, 2008

मुक्तक 9

एक ही पूँजी है ऐसी जो गई तो सब गया
जो भी है खो दीजिए, मानवता मत खोइए
रूप में पत्थर के ढलता जा रहा है आदमी
धन को पाने के लिए संवेदना मत खोइए

नाम चाहा न कभी भूल के शोहरत माँगी
हमने हर हाल में खुश रहने की आदत माँगी
हो न हिम्मत तो है बेकार यह दौलत ताक़त
हमने भगवान से माँगी है तो हिम्मत माँगी

जिन्हें तय करके आए हो, उन्हीं सड़कों पे मत लौटो
नई राहें निराले रास्ते सोचो तो अच्छा है
पुराने मौसमों की याद में खोए हुए क्यों हो?
जो मौसम आने वाला है, उसे सोचो तो अच्छा है

इस तरह बढ़-चढ़ के क्यों चर्चा अमावस की करें
रात काली ही सही, पर रोशनी थोड़ी नहीं
ज़िंदगी को चार दिन की मानने वालो सुनो
गर न भटकन में कटे तो ज़िंदगी थोड़ी नहीं


गिरिराजशरण अग्रवाल

2 comments:

siddheshwar singh said...

आपके ब्लाग पर पहली बार आया हूँ.अच्छा लग रहा है कि आप जैसे वरिष्ठ साहित्यकार इस माध्यम को साध रहे हैं. आपका लिखा किताब की शक्ल में बहुत कुछ पढा है.'शोध संदर्भ' प्रकाशित कर आपने कितने -कितनों की मदद की है, यह कोई बताने की बात नहीं है.

मुक्तक बारे में क्या कहूँ.'कवित विवेक एक नहीं मोरे.
बहुत अच्छा!!

ghughutibasuti said...

हर परिस्थिति का सामना करने की प्रेरणा देती हुई बहुत सुन्दर कविता लिखी है ।
घुघूती बासूती