Tuesday, November 4, 2008

मुक्तक 8

यदि कभी अवसर मिले, दोनों का अंतर सोचना
दर्द सहना वीरता है, जुल्म सहना पाप है
स्वप्न में भी सावधानी शर्त है, जीना जो हो
जागती आँखें लिए निंद्रा में रहना पाप है

सुख अगर बाँटें हैं तुमने आओ दुख भी बाँट लो
मेरे मन की पीड़ बस मेरी हो, सबकी क्यों न हो
अपनी अपनी नाक तक ही देखने का लाभ क्या?
आँख में हो जोत तो फिर दूरदर्शी क्यों न हो

बिजलियाँ कैसे बनी हैं बादलों से पूछिए
है समंदर का पता क्या बारिशों से पूछिए
छेद कितने कर दिए हैं रात के आकार में
दीपकों की नन्ही-नन्ही उँगलियों से पूछिए

कोई मसला सोचते रहने से हल होता नहीं
सामने का सच है जीवन, यह कोई सपना नहीं
अस्त्र से भी बढ़ के अपने पर भरोसा चाहिए
मौज से लड़ता है माँझी का हुनर, नौका नहीं

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

3 comments:

महेन्द्र मिश्र said...

बहुत सुंदर भावः के साथ बढ़िया रचना .

नीरज गोस्वामी said...

बिजलियाँ कैसे बनी हैं बादलों से पूछिए
है समंदर का पता क्या बारिशों से पूछिए
छेद कितने कर दिए हैं रात के आकार में
दीपकों की नन्ही-नन्ही उँगलियों से पूछिए
वाह वा...वाह...वा...बेहद खूबसूरत मुक्तक....शब्द और भावः लाजवाब...
नीरज

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन..बधाई.