Friday, October 31, 2008

मुक्तक 4

साँसों में मेरी सर्द हवा बनकर आ
रोगी हूँ जनम का मैं, दवा बनकर
आ ये प्यास मेरे भाग्य में लिक्खी क्यों है
मरुथल में मैं प्यासा हूँ, घटा बनकर आ

खोजे न कभी चाँद-सितारे हमने
ढूँढे ही नहीं प्यार के धारे हमने
अब आग की फ़सलें जो उगीं तो ग़म क्या
खुद बोए थे खेतों में शरारे हमने

संसार में अपना न पराया कोई
संगत में रहा बन के न साया कोई
जीवन का सफ़र? साथ चले थे कितने
सोचा तो बहुत याद न आया कोई

काँटों की फ़सल बोए हुए हैं हम लोग
बीहड़ में कहीं खोए हुए हैं हम लोग
सब देखते रहते हैं खुली आँखों से
जागे हैं मगर सोए हुए हैं हम लोग

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