Thursday, October 30, 2008

मुक्तक 2

काँटों पे गुलाबों की छड़ी रख देना
दुख-दर्द की झोली में खुशी रख देना
संसार को आँसू नहीं भाते प्यारे
रोना हो तो होठों पे हँसी रख देना

तुमने भी तो इस दर्द को भोगा होगा
संपर्क अगर मित्र से टूटा होगा
बेजान जो हो फ़ोन तो बढ़ जाता है
ये दुख कि उधर वो भी अकेला होगा

है कौन से सागर की पिपासा हम में
बुझती नहीं इच्छाओं की ज्वाला हम में
जीवन के लिए पाई है जितनी सुविधा
उतना ही असंतोष बढ़ा है हम में

किस रूप पे तू रीझ रहा है पगले
ये दीप बस इक रात जला है पगले
आ देख, तनिक झाँक के भीतर अपने
हर प्यार में इक स्वार्थ छिपा है पगले

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