Tuesday, October 28, 2008

मुक्तक 1

इक स्वप्न है तुम मुझको मनाने आओ
मन बुझने लगा हो तो हँसाने आओ
कब सुब्ह हो, कब फूल-सा महकूँ मैं भी
कब मेज़ पे तुम फूल सजाने आओ

बेकार ये कहते हो कि चादर कम है
छाया जिसे कहते हैं वो सर पर कम है
साहस हो तो पर्वत पे पहुँचना आसां
तैराक की बाहों को तो सागर कम है

सहयोग से खिलती हुई कलियाँ चुन लो
फूलों के महकते हुए गजरे बुन लो
सद्भाव के मुख पर नहीं होती ललकार
खामोश यह आवाज़ है, सुन लो, सुन लो

डा. गिरिराज शरण अग्रवाल

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