शांत मुस्कानें अधर पर फैलती खिलती रहें
घर में बस धन ही नहीं हो, प्यार का सागर भी हो
मन के भीतर भी अँधेरे रास्त है हर तरफ़!
रोशनी बाहर नहीं इंसान के भीतर भी हो
नन्हा पौधा रोपकर साये की आशा किसलिए
फल जो दे, छाया भी दे, वह पेड़ बोना चाहिए
सुब्ह कल की शुभ न होगी, पहले यह शंका हटे
मन से कल का भय जो है, वह दूर होना चाहिए
मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो
यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर आ जाएगा
सिर्फ साहस ही नहीं, धीरज भी तो दरकार है
सीढि़याँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा
हर दिशा से तीर बरसे, घाव भी लगते रहे
जिंदगी भर दिल मेरा आघात से लड़ता रहा
दोस्त! कस बल की नहीं, यह हौसले की बात है
कितना छोटा था दिया, पर रात से लड़ता रहा
Monday, November 3, 2008
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3 comments:
मुक्त होकर लिखे गए बेहतरीन मुक्तक। बधाई।
अद्भुत मुक्तक
मीना अग्रवाल
अद्भुत मुक्तक
मीना अग्रवाल
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