भीतर की रोशनी नहीं बाहर के दीप से
आँखों में भी चिराग़ जलाए तो बात है
पत्ता हवा में काँपा है, चट्टान तो नहीं
दुख में मन का चैन न जाए तो बात है
बंजर पड़ी हुई हैं ज़मीनें इधर-उधर
फ़सलें अभी बहुत हैं उगाने के लिए भी
बस अपने दायरे में ही तो सीमित नहीं रहो
अपने लिए भी तुम हो, ज़माने के लिए भी
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
Thursday, November 20, 2008
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4 comments:
वाह वाह क्या खूब लिखा है . बधाई स्वीकारें !
पहली थी मुलाकात मगर प्यार हो गया।
आँखों में आँख डूब जाए तो बात है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
पत्ता हवा में काँपा है, चट्टान तो नहीं
दुख में मन का चैन न जाए तो बात है
बेहतरीन...वाह...आनंद आ गया मुक्तक पढ़ कर...
नीरज
बहुत बढिया मुक्तक हैं।बधाई स्वीकारें।
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