कब हवा-जल के बिना फूल खिला करते हैं
कब बुझे दीप पे परवाने जला करते हैं
कोई दुनिया में किसी का नहीं बनता यों ही
लोग अपने तो बनाने से बना करते हैं
शोर बढ़ता जा रहा है शहर के माहौल में
मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन
आस्माँ में जोत की रेखा बना, पर जल बुझा
दीप-माला बन के जी, टूटा हुआ तारा न बन
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
Monday, November 10, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
6 comments:
शोर बढ़ता जा रहा है शहर के माहौल में
मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन
आस्माँ में जोत की रेखा बना, पर जल बुझा
दीप-माला बन के जी, टूटा हुआ तारा न बन
kitne sunder shabdon ka pryoog hai....sunder
बाह डाँ साहब आपके मुकतकों की क्या बात है। बधाई अच्छा लिखने और उसे बांटने के लिये
मौन अपना तोड़ लेकिन गीत बन, नारा न बन
बहुत सुन्दर ।
बहुत सुंदर !
घुघूती बासूती
vah! kya baat hai!
aap mil hi gaye!!!!
aapse sanvaad ki koshish me kafi dino se tha, aaj apka blog dekh kar dil khush ho gaya.
बढ़िया मुक्तक.
Post a Comment