जल से जूझे नहीं जो खेवनहार
तट पे जलयान जा नहीं सकता
हाथ जब तक नहीं बढ़ाओगे
जाम खुद चल के आ नहीं सकता
क्या सफर तय करेंगे जीवन का
वे जो गिर कर सँभल नहीं जाते
आग दुख की हमें न बदलेगी
जल के रस्सी के बल नहीं जाते
जो फसल काटने के इच्छुक हैं
याद रखते हैं खेत बोना भी
खोजने के हुनर पे है निर्भर-!
शूल मिट्टी में है तो सोना भी
हर तरफ़ महनतों की रौनक है
हम समझते हैं, टाल देते हैं
चलते-चलते ज़मीं की छाती पर
पाँव रेखाएँ डाल देते हैं
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
Saturday, November 8, 2008
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3 comments:
"चलते-चलते ज़मीं की छाती पर
पाँव रेखाएँ डाल देते हैं"
सुंदर
बहुत सुन्दर!!
वाहवा बहुत खूब मान्यवर डबल बधाई
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