आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है
ज़िंदगी हर घाव अपना सी न ले तो बात है
एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात
सुब्ह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है
पेड़ हैं लचकेंगे, फिर सीधे खड़े हो जाएँगे
नाचते गाते रहेंगे, आँधियों के दरमियाँ
आपदाओं से कहाँ धूमिल हुई जीवन की जोत
फूल खिलते आ रहे हैं कंटकों के दरमियाँ
शब्द भी मेरे नहीं हैं, गीत भी मेरे नहीं
मैंने जो कागज पे लिक्खा वह सभी का हो तो हो
सर के ऊपर चाँद-सूरज, साँस में ढलती हवा
अंत जीवन का नहीं है, आदमी का हो तो हो
आचरण में मोम की नर्मी भी हो, फौलाद भी
फूल बनकर म्यान में तलवार रहना चाहिए
कब समय की माँग क्या हो, यह पता चलता नहीं
आदमी को हर घड़ी तैयार रहना चाहिए
डा गिरिराजशरण अग्रवाल
Thursday, November 6, 2008
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5 comments:
आचरण में मोम की नर्मी भी हो, फौलाद भी
फूल बनकर म्यान में तलवार रहना चाहिए
कब समय की माँग क्या हो, यह पता चलता नहीं
आदमी को हर घड़ी तैयार रहना चाहिए
--बढ़िया है.
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है !
भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति.. सशक्त मुक्तक
ससक्त भाषा,शैली में आबद्ध भावपूर्ण पंक्तियाँ.बहुत सुंदर रचना है........
सुन्दर मुक्तक के लिए आभार । 'साहित्यिकी' में ऐसे ही नियमित रचनाओं की आशा है । स्वागत
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