Wednesday, October 25, 2017

1
मुझे जिसकी इक-इक गली जानती है
वो बस्ती मुझे अजनबी जानती है
कला हम भी पुश्ते बनाने की सीखें
जमीं काटना गर नदी जानती है
गिरी ओस लेकिन न अधरों से फूटी
कली कैसी जालिम हँसी जानती है
अँधेरे हों, कोहरा हो, बन हो, भँवर हो
बिताना समय जिदगी जानती है
लपट-सी उठी और नजरों से ग़ायब
अँधेरा है क्या रोशनी जानती है

2
मधुरता में तीखा नमक है तो क्यों है
किसी का भी जीवन नरक है तो क्यों है
कसक में तड़पने से कुछ भी न होगा
यह सोचो कि दिल में कसक है तो क्यों है
अकेले हो, इसका गिला क्या, यह सोचो
किसी से मिलन की झिझक है तो क्यों है
जरा-सा है जुगनू तुम्हारे मुकाबिल
मगर उसमें इतनी चमक है तो क्यों है
लचकती है आँधी में, कटती नहीं है
हरी शाख़ में यह लचक है तो क्यों है
वो हो लालिमा, चाँद या फूल कोई
सभी में तुम्हारी झलक है तो क्यों है

3
आँखों में स्वप्न, ध्यान में चहरे छिपे हुए
बेरंगियों में रंग हैं कितने छिपे हुए
कोई नहीं कि जिसमें न हो जिदगी की आग
पत्थर में हमने देखे पतंगे छिपे हुए
पाया निराश आँखों में अंकुर उमीद का
रातों में हमने देखे सवेरे छिपे हुए
कुछ देर थी तो खोजते रहने की देर थी
बीहड़ वनों के बीच थे रस्ते छिपे हुए
फैली जरा-सी धूप तो बाहर निकल पड़े
पेड़ों की पत्तियों में थे साये छिपे हुए

4
अगर स्वप्न आँखों ने देखा न होता
समझ लो कि मौसम यह बदला न होता
जमीनों से उगतीं चिराग़ों की फ़सलें
निराशा न होती, अँधेरा न होता
कमर आदमीयत की ऐसे न झुकती
समाजों से ऊपर जो पैसा न होता
जमीं नफ़रतों के शरारे उगलती
दिलों में जो चाहत का दरिया न होता
जरा सोचिए हम गिला किससे करते
जमाने में गर कोई अपना न होता

5
चलते रहो मंजिल की दिशाओं के भरोसे
जलते हुए दीपों की शिखाओं के भरोसे
पतवार को हाथों में सँभाले रहो माँझी
छोड़ो नहीं किश्ती को हवाओं के भरोसे
सच यह है कि दरकार है रोगी को दवा भी
बनता है कहाँ काम, दुआओं के भरोसे
सूखा ही गुजर जाए न बरसात का मौसम
तुम खेत को छोड़ो न घटाओं के भरोसे
ख़ुद अपना भरोसा अभी करना नहीं सीखा
जीते हैं अभी लोग ख़ुदाओं के भरोसे

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल

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Tuesday, December 2, 2008

मुक्तक 23

कुआँ ही खोद न पाओ तो फिर गिला कैसा?
ग़लत कहा कि 'ज़मीनों में जल नहीं मिलता'
इक इंतज़ार का अर्सा भी दरमियान में है
किसी को पेड़ लगाते ही फल नहीं मिलता

समय है लू का तो पुरवाइयों का मौसम भी
पवन झुलस गई शाखें निखार आती है
बताओ डालियाँ पतझर से हारती कब हैं?
बहार आती है और बार-बार आती है

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Friday, November 28, 2008

मुक्तक 22

प्रेम की शंखला बना डालो
हाथ से हाथ जोड़ना सीखो
तुम जो आँधी के साथ बहते हो
रुख हवाओं का मोड़ना सीखो

नदी नाले, सागर से बचते नहीं
यह दरिया, समंदर-समंदर गया
जो दुनिया से पाया, वह दुनिया को दो
कोई साथ लाया, न लेकर गया

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Thursday, November 20, 2008

मुक्तक 21

भीतर की रोशनी नहीं बाहर के दीप से
आँखों में भी चिराग़ जलाए तो बात है
पत्ता हवा में काँपा है, चट्टान तो नहीं
दुख में मन का चैन न जाए तो बात है

बंजर पड़ी हुई हैं ज़मीनें इधर-उधर
फ़सलें अभी बहुत हैं उगाने के लिए भी
बस अपने दायरे में ही तो सीमित नहीं रहो
अपने लिए भी तुम हो, ज़माने के लिए भी

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Tuesday, November 18, 2008

मुक्तक 20

इन धमाकों में हमीं क्यों गीत गाना छोड़ दें
रात होती है तो जुगनू बेचमक रहता नहीं
तोड़ ही देती है किरणें शीत का भारी कवच
कोहरा कितना घना हो, देर तक रहता नहीं

धन खर्च करके लोग, सभी कुछ खरीद लाए
चाहत न मिल सकी है तो पैसे से क्या मिला?
भरते जो पानियों से मरुस्थल तो बात थी
बादल को सागरों पे बरसने से क्या मिला?

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Sunday, November 16, 2008

मुक्तक 19

यह आग है, इसके लिए क्या महल, कुटी क्या?
छप्पर में लगेगी तो हवेली न बचेगी
दीवार के हर जोड़ की रक्षा है ज़रूरी
इक ईंट जो खिसकेगी तो दूजी न बचेगी

हाथ ख़ाली हो तो मत शोहरत के पीछे भागिए
कारनामा कीजिए, फिर नाम पैदा कीजिए
मन की बेकारी जो है, अज्ञानता की देन है
पूछिए मत काम क्या है? काम पैदा कीजिए

डा गिरिराजशरण अग्रवाल

Saturday, November 15, 2008

मुक्तक 18

इक हम हैं कि नींदों से जगाती है हमें धूप
सूरज का मगर सुबह के तारे को पता है
हम अपने लिए लक्ष्य तलाशा करें लेकिन
किस पेड़ पे फल है, यह परिंदे को पता है

सहयात्रियों को देख,हवाओं को भी परख
तूफ़ान सामने हो तो किश्ती की जाँच कर
सब कुछ परख चुके तो कभी सबके पारखी
कठिनाइयों के सामने अपनी भी जाँच कर

डा. गिरिराजशरण अग्रवाल