Friday, October 31, 2008

मुक्तक 4

साँसों में मेरी सर्द हवा बनकर आ
रोगी हूँ जनम का मैं, दवा बनकर
आ ये प्यास मेरे भाग्य में लिक्खी क्यों है
मरुथल में मैं प्यासा हूँ, घटा बनकर आ

खोजे न कभी चाँद-सितारे हमने
ढूँढे ही नहीं प्यार के धारे हमने
अब आग की फ़सलें जो उगीं तो ग़म क्या
खुद बोए थे खेतों में शरारे हमने

संसार में अपना न पराया कोई
संगत में रहा बन के न साया कोई
जीवन का सफ़र? साथ चले थे कितने
सोचा तो बहुत याद न आया कोई

काँटों की फ़सल बोए हुए हैं हम लोग
बीहड़ में कहीं खोए हुए हैं हम लोग
सब देखते रहते हैं खुली आँखों से
जागे हैं मगर सोए हुए हैं हम लोग

Thursday, October 30, 2008

मुक्तक 3

बहलावे भला साथ कहाँ तक देंगे
साधन ये सदा साथ कहाँ तक देंगे
चेहरे से मुखर होती है मन की भाषा
ये शब्द बता साथ कहाँ तक देंगे

इतिहास मेरा गिरना, सँभलना, चलना
हर मोड़ पे इक राह बदलना, चलना
ठहरा तो मैं रह जाऊँगा, पत्थर बनकर
चलना मेरा उद्देश्य है, चलना, चलना

हर रंग, हर अंदाज़ में ढलना सीखो
अनचाहे भी हर राह पे चलना सीखो
संसार में जीना नहीं आता तुमको
हर साँस में सौ रूप बदलना सीखो

अहसास किसी प्यास का रह जाता है
मंजि़ल पे भी इक रास्ता रह जाता है
तन-मन में समा जाने की खातिर
हम तुम मिलते हैं मगर फ़ासला रह जाता है

मुक्तक 2

काँटों पे गुलाबों की छड़ी रख देना
दुख-दर्द की झोली में खुशी रख देना
संसार को आँसू नहीं भाते प्यारे
रोना हो तो होठों पे हँसी रख देना

तुमने भी तो इस दर्द को भोगा होगा
संपर्क अगर मित्र से टूटा होगा
बेजान जो हो फ़ोन तो बढ़ जाता है
ये दुख कि उधर वो भी अकेला होगा

है कौन से सागर की पिपासा हम में
बुझती नहीं इच्छाओं की ज्वाला हम में
जीवन के लिए पाई है जितनी सुविधा
उतना ही असंतोष बढ़ा है हम में

किस रूप पे तू रीझ रहा है पगले
ये दीप बस इक रात जला है पगले
आ देख, तनिक झाँक के भीतर अपने
हर प्यार में इक स्वार्थ छिपा है पगले

Tuesday, October 28, 2008

मुक्तक 1

इक स्वप्न है तुम मुझको मनाने आओ
मन बुझने लगा हो तो हँसाने आओ
कब सुब्ह हो, कब फूल-सा महकूँ मैं भी
कब मेज़ पे तुम फूल सजाने आओ

बेकार ये कहते हो कि चादर कम है
छाया जिसे कहते हैं वो सर पर कम है
साहस हो तो पर्वत पे पहुँचना आसां
तैराक की बाहों को तो सागर कम है

सहयोग से खिलती हुई कलियाँ चुन लो
फूलों के महकते हुए गजरे बुन लो
सद्भाव के मुख पर नहीं होती ललकार
खामोश यह आवाज़ है, सुन लो, सुन लो

डा. गिरिराज शरण अग्रवाल

Tuesday, October 7, 2008

दोस्ती

रोशनी बनकर पिघलता है उजाले के लिए
शम्अ जल जाती है घर को जगमगाने के लिए

हमने अपनों के लिए भी मूँद रक्खा है मकाँ
पेड़ की बाहें खुली हैं हर परिंदे के लिए

प्रेम हो, अपनत्व हो, सहयोग हो, सेवा भी हो
सिर्फ़ पैसा ही नहीं, हर बार जीने के लिए

जितने भी काँटे हैं पग-पग में वे चुनते जाइए
रास्ते को साफ़ रखना आने वाले के लिए

एक दिन जाना ही है, जाने से पहले दोस्तो
यादगारें छोड़ते जाओ, ज़माने के लिए

समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है. हम सपने बुनते हैं और वे एक एक कर बिखर जाते हैं.ऐसे समय में अपनों को जोड़े रखना और उनके दर्द को पहचानना बहुत ज़रूरी है. क्या हम कुछ करेंगे?

डा. गिरिराज शरण अग्रवाल

Friday, October 3, 2008

सभी को रौशनी दे


इसे रौशनी दे उसे रौशनी दे

सभी को उजालों भरी जिंदगी दे।

सिसकते हुए होठ पथरा गए हैं,

इन्हें कहकहे दे, इन्हें रागिनी दे।

मेरे रहते न प्यासा न रह जाए कोई,

मुझे दिल दिया है तो दरियादिली दे।

मझे मेरे मालिक नहीं चाहिए कुछ,

ज़मीं को मुहब्बत भरा आदमी दे।

आज आदमी को चाहिए प्रेम, अपनापन। आतंकवाद ने आदमी को भयभीत कर दिया है। घर से निकलता है तो उसे घर पहुँचने men भी aashnka होती है। कब क्या हो जाए उसे पता ही नहीं है। क्या इन darindon से समाज मुक्त हो सकता है? prayas कीजिये।

giriraj sharan agrawal

Thursday, October 2, 2008

घुटन

सिमटा तो आज अपने ही कमरे की छत बना।
कल तक तो आसमान सा फैला हुआ था मैं।
देखिये आज के बुजुर्गों की ओर। अपने ही परिवार में कितना अकेलापन महसूस करते हैं। क्यों है ऐसा। कभी उनके मन में झांक कर देखिये। आप पायेंगे वे आपकी ओर निहार रहे हैं। क्या कभी हम बूढे नहीं होंगे? आइये अपने घर को मकान ही मत रहने दीजिये।
गिरिराज शरण अग्रवाल